Sunday, January 8, 2017

Detya Guru Shukraachary

 भृगुवंशी -- बी. एस। शर्मा                                         कुछ ज्ञान वर्जन बाते एवं ऋषि महाऋषियों के नाम एवं सम्बन्ध
    देवो के गुरु। ..... बृहस्पति
बृहस्पति जी की पत्नी।  :::: तारा ( बृहस्पति जी की पत्नी तारा गर्भवती हो गई , लेकिन जब बृहस्पति को संसय हुआ तो उन्होंने पत्नी से जानने की कोशिस  की , जब यह मालूम हुआ की गर्भ में पल रहा बच्चा चन्द्रमा का है तो बृहस्पति गुस्से में आ गए , इस पर भय होने पर तारा  ने गर्भस्त पुत्र का परित्याग कर दिया. सुंदर पुत्र को देखकर बृहस्पति एवं चन्द्रमा में द्वेष बढ़ गया।  बात ऋषियों तक पहुंची तो ऋषियों ने फैसला किया की चन्द्रमा के वीर्य से होने से यह पुत्र चन्द्रमा का ,वीर्य प्रधान मानते हुए यह फैसला लिया गया।
महाऋषियों एवं मनु आदि स्मृति कारो  ने अध्याय ७ श्लोक व् महाभारत अनुशासन पर्व ४७२ श्लोक २८ में पुत्र निर्णय पर बीज की प्रधानता दी है। अत: उसी का पुत्र एवं जाति मानी  जाती है
बृहस्पति के पुत्र का नाम। .... बुध
बुध का विवाह वैवस्वत मनु की पुत्री इल्ला से बुध का विवाह हुआ था ,जिससे पुरुरवा का जन्म हुआ।

गाधि की कन्या का नाम सत्यवती था ,इनका विवाह भृगुवंश ऋषि ऋचीक से सम्पन हुआ। ( कहि कहि ऋचीक को महृषि शुक्राचार्य  जी का पुत्र बतलाया गया है।

 गाधि के पुत्र विश्वामित्र हुए। इनका दूसरा नाम विश्व रथ था। .... विस्वामित्र की पहली पत्नी dustrta  के गर्भ से अस्टक का जन्म हुआ था (   विश्वामित्र छत्रिय से ब्रह्म ऋषि हुए ) ::::::

बृहस्पति :::: ये देवताओ के गुरु है। देव गुरु बृहस्पति श्रद्धा के गर्भ से उतपन हुए। जो अंगिरा के पुत्र कहे जाते है।                     इनकी पत्नी तारा  है , जिन्हे चन्द्रमा ने बलात हर लिया था. शिव एवं ब्रह्मा जी ने बीच बचाव कर पत्नी को लोटा दिया गया था।
बृहस्पति ने अपने बड़े भाई उतथ्य की पत्नी ममता से गर्भावस्था में सहवास किया था , जिससे भारद्धाज का
जन्म हुआ , बुध , बृहस्पति की पत्नी तारा से सोम ( चन्द्रमा ) के पुत्र माने जाते है।
भगवान श्री कृष्ण ने  देवताओ के पुरोहित के रूप में बृहस्पति को अपने अंशावतार कहा  है।
:: पपुरोधसाम्  च मुख्यम मा बिधि पार्थ बृहस्पतिम् " सेनानी नाम्ह स्कंध "

अंगिरा और भिर्गु दोनों ही ब्रह्मा के मानस पुत्र बताये जाते है।
दोनों के दो दो पुत्र हुए , इनमे से अंगिरा का पुत्र बृहस्पति एवं भरगु के ज्येष्ठ पुत्र का नाम कवि , जिसे (शुक्र) अर्थात  शुक्राचार्य भी  कहा जाता है।
दोनों पुत्रो की शिक्षा दीक्षा का जिम्मा अंगिरा को देकर भरगु जी तपस्या को चले गए. परन्तु अंगिरा अपने पुत्र को पढने में ज्यादा रूचि दिखाने लगे, जिसके कारण शुक्राचार्य जी अंगिरा से इज़ाज़त लेकर किसी दूसरे गुरु के पास शिक्षा लेने चले गए।
शुक्राचार्य जी गौतम के आश्रम पर गए , उन्होंने उनको बताया की तीनो लोको के गुरु भगवान शंकर है , उनके पास जाओ और शिक्षा ग्रहण करो।
शुक्राचार्य ::::::::: जी गोदावरी के तट पर आकर भगवान शिव का पूजन किया , स्मरण किया , उनकी स्तुति करने लगे. . ::::::::::: शुक्र की भगति से प्रशन होकर महेश्वर प्रकट हुए ,और वरदान मांगने को कहा।
शिव ने उन्हें,उनकी इच्छानुसार लौकिक एवं वैदिक विधाए सभी प्रदान की ,लेकिन शुक्राचार्य जी ने कहा भगवान यदि आप मुझ पर प्रश्न है तो मुझे मृत प्राणियों को जीवित करने वाली विद्या दे दीजिये. .महादेव ने उन्हें संजीवनी  विद्या  भी प्रदान की।

दैत्यों। .. :::::: ने शुक्राचार्य जी को गुरुवरण किया और शुक्राचार्य जी दैत्यों के गुरु बन गए।
                                                                                                                                                    शुक्राचार्य  जी की पत्नी का नाम  जयंती था ,जयंती के पिता का नाम शचि था

दैत्यों की उतपत्ति ::::::::: दिति नाम की कश्यप पत्नी के गर्भ से दैत्य जाती की उतपत्ति हुई ,जिसने हिरण्यक्ष ,एवं हिरण्यकश्यपु नाम के दो पुत्र व् सिंहिका (निऋति )नाम की एक पुत्री को जन्म दिया। सिंहिका से राहु (निऋति ) का जन्म हुआ।

हिरण्यकशिपु की बहन सिंहिका दांव राज विप्रचिति को ब्याही थी।
हिरण्यकशिपु के उनकी पत्नी कयाधु द्वारा प्रह्लाद ,अनुह्लाद ,हलाद और संह्लाद  चार पुत्र हुए।  इनकी एक पुत्री दिव्या थी , हिरनकुशिप ने अपनी पुत्री दिव्या एवं दानव राज पुलोम ने अपनी पुत्री पौलोमी का विवाह महाऋषि भरगु जी से किया था।
दिव्या से महर्षि भरगु को शुक्र काव्य (कवि)  उशना नाम के प्रसिद्ध  पुत्र हुए। जो दैत्य दानव कुल का याचक हुआ ,
पौलुमि की संतानो में ::::::: च्वयन ,ओर्व , ऋचीक ,जन्मदग्नि एवं परशुराम हुए।
दिति ने भरत गणो को भी उतपन किया था।

प्रह्लाद का पुत्र बलि हुआ :::::: बलि के काल में ही दैत्य एवं दानवो ने मिलकर समुन्द्र मंथन किया।

भरगु कच्छ भड़ोच में राजा बलि ने दस्वमेध यज्ञ  किया था।

दक्ष की तीसरी कन्या दनु का विवाह कश्यप से हुआ था।
दक्ष की पत्नी द्वारा छबीस नाग वंश चले।
मनसा देवी कद्रु की कन्या है।  तेजस्वी आस्तिक मनसा देवी के पुत्र कहे गए है।
मनसा देवी लक्ष्मी देवी के अंश  से प्रकट हुई थी।

कश्यप वंशी ऋषियों में ही कश्यप ,सहवत्सार ,नैध्रुव , नित्य , असित ,देवल पोलुम ,दिव्य आदि ब्रह्मवादी ऋषि हुए है।

ईत्व्य की पत्नी ममता के गर्भ से बृहस्पति द्वारा भारद्वाज का जन्म हुआ था।  मरुत गण ने इनको पाला पोषा था , भरद्वाज की पुत्री श्र्ण्वति की सेवा से प्रशन होकर इन्दर देवता इन्हे स्वर्ग ले गए थे।

भरद्वाज के धताची  नाम की अप्सरा से द्रोणाचार्य का जन्म हुआ था।
द्रोणाचार्य का विवाह श्रदां की पुत्री किर्पी  से हुआ था।  जिसके गर्भ से अस्वस्थामा नमक पुत्र पैदा हुआ।

महर्षि पुलस्त्य  :::::::: इन्हे भी ब्रह्मा का पुत्र माना   गया है।  इनकी पत्नी हविर्भू से महर्षि अगस्त और महत्पश्वी विश्रवा ये दो पुत्र उतपन हुए।

विश्रवा मुनि की  माता इडविडा (इलविला) मनु पुत्र नरिष्यन्त  के पुत्र तृणबिन्दु की पुत्री थी।  इडविडा के गर्भ से
यक्षराज कुबेर का जन्म हुआ था , कुबेर का दूसरा नाम वैश्वण था , जिसे मह्रिषी भरद्वाज ने अपनी कन्या दी थी।

विश्रवा मुनि का दूसरा नाम विंशतिग्रिव भी था ,(ब्रह्मवेशपूर्ण) उनकी दूसरी पत्नी  केशनि से रावण , कुम्भकर्ण ,विभीषण , व् दो पुत्रिया  त्रिजटा एवं शूर्पणखा उतपन हुई थी।  रावण का दूसरा नाम दशग्रीव भी था।


रावण वरुण आदि के बैर के कारण वरुण की नगरी अलकापुरी से सपरिवार निकल कर लंका दिव्प में जा बसा था। वही से उसने  मय दानव की पुत्री मंदोदरी से विवाह किया था।  मंदोदरी की माता (जो मय दांव की पत्नी थी ) का नाम हेमा था।  पुलस्त्य की अन्य पत्नी प्रीति से दतोलिका का जन्म हुआ था।
महऋषि भृगु जी - ब्रह्मा जी के पुत्र
महृषि भृगुजी के पुत्र। .. दिव्या पत्नी का वट व्रक्ष = कवि [शुक्राचार्य ] शुक्र ,इन्हें काव्य उशना भी कहते है।
                                     शुक्राचार्य के षंड [षण्ड ]
                                      षंड के शंकराचार्य ,  शकराचार्य के शांडिल्य , शांडिल्य के डामराचार्य [डंक मुनि ,डंक
                                       नाथ ,डंक ऋषि ] के नमो से भी जाना जाता है।
कवि ,शुक्राचार्य पुत्री देवयानी , जिनके पति राजा ययाति हुए।
डामराचार्य [डंक ऋषि ]के  पाँच पुत्र भये - डिंडिम , दुरतिश्य ,प्रतिष्य ,सुषेण , शल्य।
ततपश्चात महृषि -डिंडिम के वंश कर्म में - पूर्णी ,चन्द्रमणि ,नागमणि , नाभाचार्य ,दर्भा ,शरभंग ,वर्धमान ,
                             वसुमान ,वैज भुज [वैज ],नन्द्शेखर , मुक्तामणि ,चिंतामणि , मधुछन्द ,कण्ठाचार्य[कण्ठ
                            नील ,वत्स ,मांडकय एवम शांडिल्य [छँडुल ] आदि ऋषियों ने इस वन्स में जन्म लिया।
                             इनमे की गोत्रकार ऋषि भी हुए।
महृषि शुक्राचार्य जी की तीन पत्नियों का उळेख मिलता है।  १. पितरो की मानसी कन्या गो , २-देवराज
इन्दर की पुत्री जयंती  ३- पिर्यवर्त की पत्नी बहिस्मति से उत्प्न कन्या ऊर्जस्वती।
इसका उल्लेख -भागवत स्कंध ५ श्लोक ३४ में मिलता है।
शुक्राचार्य की पत्नी गो से शहद ऋषि का जन्म हुआ।
गीता अध्याय १० श्लोक ३७ में भगवान श्री कृष्ण ने कवियों में शुक्राचार्य को अपना स्वरूप माना है।                                             महृषि भृगु जी की उतपत्ती - महाभारत में इनकी उतपत्ति ब्रह्मा जी के ह्रदय से बताई
गई है।  वायु पुराण में इनका ब्रह्मा के मानस पुत्रो में उल्लेख किया गया है। मनु स्मृति में इनकी उतपत्ति
अग्नि से बतलाई गई है। भृगुवंशियों की गाथा मत्स्यपुराण, पदम् पुराण , महाभारत , अथर्ववेद -ऋग्वेद ,
ब्रह्मवेवपुराण ,गणेशपुराण,रामायण आदि में मिलती है. ---------
भृगुवंशीय ब्राह्मण मूलतः: तीन विभिन वँशो [शाखाओ] में विभाजित होकर समाज में अपनी अलग
पहचान बनाये हुए है।
१। भृगु पत्नी ख्याति की सन्तान।
२-भृगु पत्नी पुलोमा की सन्तान
३-भृगु पत्नी दिव्या की सन्तान।
                             [   भृगु पत्नी ख्याति का वट व्रक्ष ]
      भृगु पत्नी ख्याति  जो महृषि कर्दम की पत्नी देवहुति की पुत्री थी। जिसके गर्भ से दो पुत्र  धाता एवम
विधाता , तथा एक पुत्री श्री लक्ष्मी जी का जन्म हुआ  , श्री लक्ष्मी भृगु जी की कन्या , विष्णु भगवान को ब्याही
गई थी।
                               [ भृगु जी की दूसरी पत्नी पुलोमा का वट व्रक्ष ]
                     भृगु पत्नी पुलोमा से मह्रिषी च्यवन का जन्म हुआ। राजा शर्याति की पुत्री शुकन्या से च्यवन
का च्यवन का विवाह हुआ। च्यवन यज्ञ करता थे , तथा राजा शर्याति के दामाद एवम पुरोहित भी थे। च्यवन के पुत्र ओर्व एवम ऋचीक हुए।  ओर्व का विवाह  राजा  गाधि  की पुत्री सत्यवती से हुआ जो विस्वामित्र की बहन थी।  जिसके गर्भ से जमदग्नि आदि सौ पुत्रो का जन्म हुआ , विश्वामित्र जमदग्नि के मामा थे। इन दोनों का जन्म
भृगुजी के आशिर्वाद से हुआ। विश्वामित्र और वशिस्ट आपस में बड़े प्रसिद्ध प्रतिद्वंदी थे।  महृषि वसिष्ट सूर्यवंशियो के गुरु बने।   जन्मदग्नि का विवाह राज ऋषि रेनू की पुत्री रेणुका से हुआ था। जमदग्नि की पत्नी
रेणुका से परशुराम का जन्म हुआ।  जिन्होंने २१ बार छत्रियो का संहार किया।
                                  [ भृगु जी की तीसरी पत्नी हिरणाकुश की पुत्री दिव्या से महृषि शुक्राचार्य जी का
जन्म हुआ।  जिन्हें दैत्यों का कुल गुरु भी कहा जाता है।  इनका दुसरा नाम  कवि उशना था।  एकमत के अनुसार
भृगु पत्नी दिव्या से कवि एवम कवि से शुक्राचार्य का जन्म माना जाता है।
  पाठको को यहां बताना उचित होगा की भृगुवंशी इतिहास में भृगु वट व्रक्ष तीन वंशो में बता हुआ है। लेकिन
दो वंश ही प्रमुख माने जाते है।   १... भृगु पुत्र च्यवन वंश   २. भृगु पुत्र शुक्राचार्य वंश।
शुक्राचार्य जी दैत्यों के गुरु माने जाते है।  जिनके पास संजीवनी विद्या थी , जो उन्होंने देवो   के देव
महादेव  की तपश्या करके प्राप्त की थी।  शुक्राचार्य वंश में ही महृषि डामराचार्य हुए ,जिनका वर्णन ऊपर
किया गया है , जिन्हें डंक ऋषि , डंक मुनि के नामो से भी जाना जाता है , डाकोत ब्राह्मण भी इन्ही के
वंश से सम्बन्ध रखते है।                                                                    
                                                                                                    साभार -भृगु वंश -गाथा




                         
                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                           


Wednesday, January 4, 2017

                                           " इतिहास का महत्व "
                                            जिस समाज का अपना कोई इतिहास नही होता, वः समाज कभी शाशक नही
बन पाता , क्योकि इतिहास से प्रेरणा मिलती है ,प्रेरणा से जाग्रति आती है , जाग्रति से सोच बनती है , सोच
से ताकत , ताकत से शक्ति , एवम  " शक्ति शंघे कलियुगे " ..
                              भृगुवंशी "डाकोत जाति " के कालांतर के इतिहास पर गोर किया जाए तो इसे गौरवमय
इतिहास की संज्ञा दी जा सकती है ,जिसमे महाऋषि भरगु से शुरू होकर , महृषि डामराचार्य ( डंक ऋषि - डंक नाथ , डंक मुनि } पर आकर नजर रुक जाती  है , अर्थात महऋषि भृगु जी  वट व्रक्ष के रूप में प्रचलित होकर , शुक्राचार्य  जी के वंश में  महऋषि [डंक ,डामराचार्य जी ] जैसे समस्त ऋषियों का काफी योगदान रहा , इस
गौरवमयी इतिहास के विषय में " डाकोत जाति " के सभी छोटे -बड़ो को इतिहास का ज्ञान , पूर्वजो के
बारे में जानकारी होना  जरूरी है की किस तरह हमारे ऋषि मुनियो ने " भृगुवंश  की  शुक्राचार्य जी की पीढ़ी
को इतिहास में क्या स्थान दिलाया , और सभी पूर्वज इतिहास के पन्नो पर अपना नाम स्वर्ण अक्षरो में
लिखाने का गौरव प्राप्त किया।
                        सबसे पहले महऋषि शुक्राचार्य जी के विषय में कुछ पाठको को स्मरण करते  हुए आगे बढ़ते है। शुक्राचार्य जी दैत्यों के गुरु एवम देवो के देव महादेव  के भक्त कहे जाते है , जिन्होंने शिव भग्ति करके
संजीवनी विद्या प्राप्त की , जिसे आज तक कोई भी ऋषि - महात्मा हाशिल नही कर पाए , इतना ही नही
उन्होंने आकाश में भी शुक्र तारे के रूप में अपना स्थान पाया , और जब तक शुक्र तारा अस्त रहता है , कोई
भी शुभ कार्य नही किया जा सकता। इसी वंश में शुक्राचार्य के अतिरक्त शुक्राचार्य जी के पुत्र षंड एवम मर्क
हुए , जिन्होंने हिरणाकश्यप के पुत्र प्रह्लाद को शिक्षा दीक्षा देकर उस मुकाम पर पहुचाया , जिस प्रह्लाद की
भग्ति से उसके पिता को भी मात खानी पड़ी।
                       महृषि डंक { डामराचर्य , डंक नाथ , डंक मुनि } का नाम भी शुक्राचार्य वंसज "डाकोत जाति "
से  जोड़ कर देखा जाता है , ड़क ऋषि परम् वैरागी पुरुष थे ,इष्ट के सच्चे भगत थे , सुख वैभव ,भोग विलास
से भी दूर रहकर प्रभु भग्ती में लीन रहे और शंकर जी के प्रति अनुरागी रहे।  गुजरात में जब वो डाकोर में
तपश्या कर रहे थे , तो श्री कृष्ण स्वयं भीम के साथ उनसे मिलने पहुचे थे , क्योकि ड़क ऋषि कृष्ण जी के
भी सच्चे भगत थे। इस प्रकार देखा जाए तो इस जाति का इतिहास काफी गौरव शाली एवम महत्वपूर्ण
माना जाता है।  थोड़ी और नजर दौड़ाई जाए तो इसी वंश में "सुषैन वैद " का नाम कौन नही जानता ,
राम रावण युद्ध में जब राम के भाई लक्छ्मण जी मूर्छित हो गए थे , उस समय सुषैन वैद ने उनका उपचार किया और लक्छ्मण जी को जीवन दान देकर श्री राम के दिल में जगह बनाई ,जिसका नाम भृगुवंशी इतिहास
में सुनहरी अक्षरो में लिखा गया।
                            इस जाति  के  लोग अपने आपको गौरवान्वित महसूस करते है। तथा समस्त मानव
जाती के दुःख-दर्द में अपने पूर्वजो के बनाये रास्ते पर चलते हुए , समाज हितार्थ ,पूर्ण योगदान देते है।
इन्हें  शनि उपासक का दर्जा प्राप्त है , दानदाता की सभी पीड़ा को सहन करते हुए , दान दाता की रक्षा
भी करने में भी इनका योगदान अवश्य पाया जाता है , क्योकि , इनकी जिव्हा पर सरस्वती का वास है।

                     
                                                                                                             बी: एस :शर्मा